सिंध यात्रा : जिंदगी, आपदा और व्यवस्था से जद्दोजहद की अनसुनी कहानियां

कवर फ़ोटो: सेंवढ़ा के पास महीनों पहले आयी बाढ़ से गिरा एक पेड़ और नदी का दृश्य।

यह आलेख ऐशानी गोस्वामी और राहुल सिंह ने संयुक्त रूप से लिखा है, जो मूविंग अपस्ट्रीम : सिंध फेलोशिप प्रोग्राम के तहत उनके यात्रा अनुभव पर आधारित है।

हमलोगों ने अपनी सिंध नदी की 155 किलोमीटर लंबी यात्रा शुरू करने से पहले इसके संबंध में छपी खबरों, आलेख, गूगल अर्थ व्यू और हाथ से तैयार मानचित्रों के माध्यम से इस नदी से खुद को परिचित करने व इसे समझने की कोशिश की। इससे हमें अपनी पूरी यात्रा को लेकर एक आरंभिक समझ बनाने में मदद मिली। लेकिन यह बस उतना ही था –  “दूर से कल्पना की गयी एक दृश्य या छवि”। चलना, ठहरना और कभी-कभी उसमें खो जाने ने हमें  नदी और उसके करीब के गांवों को अधिक करीब से समझने-जानने का मौका दिया। नदी के किनारे पैदल चलने के क्रम में हमने बारीक या सूक्ष्म बदलावों को देखा और लोगों से मिले और उनकी कहानियां इकट्ठा किया।

हमने बचपन से अपने-अपने गृहनगरो में नदियों के साथ अलग-अलग अनुभवों को जिया है। राहुल ने अपना शुरुआती बचपन भागलपुर में बिताया, जहां उनका गंगा से घनिष्ठ संबंध रहा; जबकि ऐशानी ने अहमदाबाद में साबरमती के आसपास आधारभूत संरचना को लेकर किए गए बदलावों के साथ नदी से अपने संबंधों को बदलते देखा है। लेकिन, पूर्वी व पश्चिमी भारत से अलग मध्य भारत में सिंध के साथ-साथ चलना हमारे लिए एक नए भूगोल में और नदी को करीब से जानने का मौका था।

अपनी यात्रा के अंत में हमने महसूस किया कि जैसे नदियां लोगों की तरह हैं – जितना अधिक आप उसके साथ समय बिताते हैं –  वे उतनी ही परिचित होती जाती हैं। 12 दिनों में हमने नदी के किनारे 155 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की, सिंध और उसके लोगों के साथ समय बिताया, नदी के साथ अपनेपन की भावना को विकसित किया। हम ‘मूविंग अपस्ट्रीम : सिंध फेलोशिप’ के तहत इस कार्य के लिए यह शानदार अवसर देने के लिए वेदितम के आभारी हैं।

खबरों व आलेखों को पढ़ कर दूर से बनाए गए नजरिए के जरिए हम जानते थे कि सिंध पर तीन या चार पुल 2021 की बाढ़ में ध्वस्त हो गए। लेकिन, जब हम सेंवढ़ा (बुंदेलखंडी बोली में सेंवड़ा या स्योंडा) पहुंचे तो हमने करीब से इस आपदा और उसके प्रभावों को देखा, जाना और उसे समझने की कोशिश की।

हमारी यात्रा के आरंभिक बिंदु का पहला दृश्य विडंबनापूर्ण व झकझोरने वाला था। ग्वालियर से बस के माध्यम से अपनी यात्रा के प्रस्थान बिंदु तक पहुंचे तो उतरते ही सिंध के पहले हमने एक टूटे पुल और “सेंवढ़ा में अभिनंदन” लिखा एक बोर्ड देखा। पर, यह टूटा पुल अब सेंवढ़ा में किसी आगंतुक का स्वागत करने में सक्षम नहीं है, पर उसके बगल में स्थित पत्थर का पुराना पुल जो बाढ़ में पूरी तरह डूब गया था, अब भी खड़ा है और काम कर रहा है। 2021 की बाढ़ का असर इस दृश्य से और लोगों से हुई बातचीत से हमारे लिए अधिक स्पष्ट हो गया, जो बाढ़ से संबंधित खबरों व आलेखों से लगभग गायब थे। इसके बाद हमने 2021 की बाढ़ से हुए नुकसान की कई कहानियां देखीं और सुनीं और ग्रामीणों के साथ समय बिताते हुए उसके दर्द को महसूस भी किया।

नदी का उत्सर्ग और बहाव

विदिशा जिले के लटेरी से निकलने के बाद सिंध एक घुमावदार रास्ता बनाती है और इसके 470 किलोमीटर लंबे प्रवाह का अधिकांश मध्यप्रदेश में गुजारता है, जबकि यमुना में मिलने से पहले अंतिम कुछ किलोमीटर (लगभग नौ किमी)  यह उत्तरप्रदेश में बहती है। उत्तराखंड हाइकोर्ट ने 2017 में गंगा और यमुना को जीवित इकाई का दर्जा दिया था (जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था), पर सिंध अदालत के इन फैसलों से बेखबर गंगा के अस्तित्व में योगदान देने वाली एक नदी है।

मध्यप्रदेश में सिंध के अपवाह क्षेत्र में योगदान देने वाली इसकी कुछ प्रमुख सहायक नदियों में – महुअर, पार्वती, पाहुज और कुंवारी शामिल हैं। हम सिंध नदी के किनारे 155 किलोमीटर धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व के स्थल सियोंढ़ा से चले और नरवर जहां मड़ीखेड़ा और मोहिनी बांध मौजूद है और जो आधुनिक विज्ञान व तकनीक की रचना है, वहां यात्रा खत्म की।

नदी के बहाव व उसके तट के गांवों को समझने, उसका अंदाजा लगाने के लिए हमने स्थानीय लोगों से सवाल पूछे। स्थानीय लोगों ने नदी के किनारों को डांग, बजरी, खेत के रूप में चित्रित किया या उसके बारे में समझाया। स्थानीय लोग हमें सावधान करते, सलाह देते और सही रास्ता बताते। कभी-कभी हम जिस रास्ते चलना चाहते तो उसको लेकर वे हमारे लिए मजबूत चेतावनी देते, बताते क्यों और किस वजह से उधर से जाना अच्छा नहीं हो सकता। वे मगरमच्छ और उस इलाके में पाए जाने वाले शुष्क पर्णपाती कांटेदार जंगलों को लेकर सावधान करते।

हमसे नदी कि किनारे का जिक्र करते हुए ग्रामीण ‘जालन’ व ‘बालन’ का उल्लेख करते। शुरुआत में यह हमारे लिए यह एक नया शब्द युग्म था। हम शुरुआती यात्रा में बुंदेलखंडी बोली के इन शब्दों को लेकर परिचित हुए और इसके बारे में अधिक स्पष्टता के लिए एक से अधिक लोगों से सवाल पूछे। ग्रामीण जालन शब्द का प्रयोग नदी के इस किनारे और नदी के उस पार के किनारे के लिए बालन शब्द का प्रयोग करते हैं।

सेंवढ़ा के किसान सुनील बाथम ने जो हमारी यात्रा के पहले अहम साथी बने, उन्होंने हमें इन शब्दों से परिचित करवाया। सुनील हमें देख अपनी खाद नदी के किनारे छोड़ नाव से जालन से बालन बाढ़ से हुई बर्बादियों को दिखाने के लिए ले गए। उन्होंने नदी के तट पर तेज बहाव से उजड़े हुए अमरूद का बगीचा दिखाया। फिर हमें बालन में वहां तक छोड़ आए जहां से दिक्कतें कम हों। हम जब सेंवढ़ा से कई किलोमीटर आगे बढ़ गए तब भी सुनील हमारे लिए मददगार थे, क्योंकि फोन पर अक्सर वे हमसे पूछते – “आपलोग कहां हैं, कैसे हैं, कोई दिक्कत तो नहीं आयी”। और फिर वे अपने परिचितों के गांव का हवाला देकर यह जानना चाहते कि वे हमारी यात्रा में कोई मदद कर सकते हैं क्या?

सेंवढ़ा के किसान सुनील बाथम, जो यात्रा के क्रम में लगातार हमसे संपर्क करते रहे।

अनुभव से बदलती धारणाएं

जैसे-जैसे हम सिंध के साथ चले समय और दूरी को लेकर हमारी धारणाएं बदलने लगीं। तीन-चार दिन चलने के बाद हमने महसूस किया कि सप्ताह के दिन या महीने की तारीख को लेकर हमारा उन्मुखीकरण या स्मृतियां धुंधली होने लगी हैं। इसके विपरीत, हम दिन के अलग-अलग बदलते समय को लेकर अधिक सचेत हो गए। हम मौसम में बदलाव, अचानक धूप खत्म होने व आकाश में घटा छा जाने को अधिक गौर करने लगे। हम दिन के उजाले में उस दिन की अपनी यात्रा को पूरा कर किसी सुरक्षित पड़ाव की तलाश में होते। मौसम, सूरज की रोशनी और बादलों के बदलते आवरण के बीच हम किसी दूरी तक चलने के लिए आवश्यक समय का अनुमान लगाने में सक्षम थे। कुछ फासला जो दूर लगता था, उसे अब हम तय करने में सहज हो गए थे।

जैसे-जैसे हम सिंध के अपस्ट्रीम चलते गए, नदी के किनारे में बहुत बदलाव को महसूस किया। हम रेत पर, जलोढ़ घाटियों, चट्टानों, गिली मिट्टी, सरसों के खेतों, कंटीली झाड़ियों, बबूल के जंगल और सिंध व महुअर नदी (सिंध की एक सहायक नदी) के बीच से चले। हम बड़े मन के शानदार लोगों से मिले जो हमारी मदद करने, हमार साथ देने के लिए हर तरह से प्रयास करते।

सिंध से लगे कुछ गांवों में गरीबी है। वहां आधारभूत संरचनाओं मसलन अच्छी तरह से बनी सड़कों, घर में उपयोग के बाद निकलने वाले दूषित जल की निकासी व स्वच्छता तंत्र का अभाव है।

हमने पाया कि ग्रामीणों एवं शासन करने वाली इकाइयों के बीच संवाद का माध्यम कमजोर एवं एकतरफा है। इस वजह से सरकारी योजनाओं का अपेक्षित लाभ जमीन पर प्रभावी ढंग से नहीं पहुंचता है। सिंध के तटीय गांवों के लोगों के पास पर्याप्त सरकारी व निजी नौकरियां नहीं हैं; जिससे वे आसपास के शहरों एवं औद्योगिक नगरों में पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं।

नदी के किनारे कई बस्तियां बसी व विकसित हुई हैं। इन गांवों में पशुपालन स्थानीय आर्थिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हम इस बात को लेकर पक्के नहीं हैं कि सिंध के गांवों में समृद्धि को मापने का क्या पैमाना है, लेकिन पशुपालन कृषि का एक पूरक है और खास कर लोगों के लिए नकदी प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए उनकी आर्थिक प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है। हमने इन गांवों में विभिन्न सामाजिक और आर्थिक स्तरों के बीच एक खंडित सामाजिक संबंध नहीं देखा। इन गांवों में बुनियादी सुविधाओं और आधारभूत संरचना के अभाव को लेकर चिंता है।

सिंध के आसपास के गांवों में स्वच्छता और उसके लिए न्यूनतम आवश्यक ढांचा स्वच्छ भारत मिशन की सफलता के जोरदार प्रचार के विपरीत है। हमने देखा कि अनेकों गांवों में गंदा पानी सड़कों पर बहता है और वह बिना परिष्कृत हुए नदी में सीधे समा जाता है। हमें यह स्थिति फिलहाल स्वच्छ नदी सिंध के दूरगामी स्वास्थ्य के लिए खतरा लगी। हमें ऐसा भी प्रतीत हुआ कि ग्रामीण सड़क पर दूषित पानी के बहाव या सड़क के ही नाला बन जाने को लेकर अभ्यस्त हो गए हैं। हम वैसे कई स्थानों से गुजरे जहां खुले में शौच कोई असामान्य प्रथा नहीं है। और, यह स्थिति ओडीएफ यानी खुले में शौच मुक्त गांवों की घोषणाओं की तुलना में जमीनी हकीकत की विसंगति की ओर इशारा करती है।

नदी प्रणाली के साथ मानव संबंध व प्रभाव

अपनी यात्रा के क्रम में हमने देखा कि कई छोटी धाराएं और सहायक नदियां सिंध में आकर मिलती हैं। हमने सिंध और बेतवा परियोजना के नहर नेटवर्क को भी देखा। सिंध नदी बेसिन बेतवा नदी बेसिन से सटा हुआ है। बेतवा सिंचाई परियोजना के तहत आने वाली नहर जो भांडर से लार की ओर बहती है, वह सिंध के किनारे स्थित गांव बेरछा से होकर जाती है; जहां हम रुके थे। यानी यह न केवल बेतवा बेसिन के गांवों को कवर करती है बल्कि सिंध बेसिन के कुछ गांवों भी इसके निकट हैं और वे इससे लाभान्वित होते हैं। वर्तमान में मड़ीखेड़ा और मोहिनी पिकअप वियर सिंध नदी पर के प्रमुख बांध हैं और एक नया प्रस्तावित बांध स्वीकृति की प्रक्रिया में है।

सिंध के तटीय गांवों के लोगों के साथ हमने जो बातचीत की उसमें उन्होंने प्रमुखता से 2021 की बाढ़ से हुई क्षति का ही उल्लेख किया, शायद इसकी वजह यह है कि उन गांवों के बुजुर्गों ने भी अपने जीवन में इस तीव्रता की बाढ़ पहले कभी देखी नहीं थी। ग्रामीणों ने हमसे बाढ़ के दौरान अस्थायी पुनर्वास, ध्वस्त हुए घर, खेती की उर्वर भूमि के कटाव, मवेशियों को हुई क्षति, अनाज व पशु चारे को हुए नुकसान की बात की। लोगों ने हमें बताया कि ऐसे स्थिति मड़ीखेड़ा और मोहिनी डेम के फाटकों के अचानक खुल जाने की वजह से हुई।

हमने अपनी यात्रा के क्रम में नदी तट और नदी के अंदर कई जगहों पर रेत का उत्खनन होते देखा। अत्यधिक और अवैज्ञानिक तरीके से किया गया ऐसे खनन से सिंध का प्रवाह, स्वास्थ्य, जलीय जीवों का आवास और उसका पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। तकनीक के उपयोग ने जैसे पंप, भारी मशीन जिनमें एक प्रमुख नाम पनडुब्बी है, जेसीबी, ट्रैक्टर, डंपर आदि ने रेत उत्खनन को संगठित तरीके से व बड़े पैमाने पर करने में सक्षम बनाया। हम रेत उत्खनन के इन तरीकों की वैधानिकता पर फिलहाल टिप्पणी नहीं कर सकते हैं, लेकिन नदी, नदी के स्वास्थ्य और उसके तट पर बसे गांवों के लोगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा है।

हमने अपनी यात्रा के क्रम में देखा कि सिंध पर बने कंक्रीट के तीन पुल जो सेंवढ़ा,, रतनगढ़ और लांच में थे; वे पूरी तरह ध्वस्त हो गए। उनका इस तरह ध्वस्त हो जाना निर्माण की गुणवतता पर अनुत्तरित सवाल है। निश्चित रूप से 2021 की बाढ़ में काफी तीव्रता थी, पर रेत का अवैज्ञानिक व भारी मात्रा में उठाव बाढ़ के खतरों को कई गुणा बढ़ा देता है और जानमाल व संपत्तियों के नुकसान का खतरा भी बढ़ा देता हैं।

प्रतीक, अध्यात्म और राजवंश

गाय हमारे यहां राजनीतिक और धार्मिक संवाद में एक महत्वपूण प्रतीक है। लेकिन, हमने अपनी यात्रा के क्रम में देखा कि परित्यक्त या छुट्टा गायें बड़ी संख्या में सड़कों पर, जंगलों में अपने आहार के लिए भटकती-चरती रहती हैं और वे कई बार खेतों में प्रवेश कर फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं। हमने महसूस किया कि ये गायें भरपेट आहार के लिए परेशान हैं और किसान भी इनसे अपनी फसलों को होने वाले नुकसान से परेशान हैं। रतनगढ़ के जंगल में हमने कई छुट्टा गौवंश पशु देखे, जिनमें कई असुरक्षित पहाड़ियों पर चारे की तालाश में चढ़ने के दौरान फिसल कर मरती हैं तो कई भोजन एवं चारे की अनुपलब्धता के कारण कमजोर होती जा रही हैं।

सिंध के तटीय इलाके में परित्यक्त गायें चारे की तालाश में भटकती रहती हैं, किसान भी उनसे खुद को परेशान महसूस करते हैं।

हमने अपनी यात्रा के दौरान अलग-अलग जगहों पर किले और महल देखे। इस दौरान कुछ राजवंशों के प्रभाव की कहानियां भी लोगों से सुनीं। उनमें कुछ सम्मान व गरिमा से भरी थीं तो कुछ में उत्पीड़न की पीड़ा भी। हिनोतिया के ग्रामीणों ने एक राजवंश के राजा की वीरता-पराक्रम की कहानी खुद उसमें गहरे डूब कर सुनायी तो रतनगढ़ के पास एक व्यक्ति ने थोड़ा हेय भाव से एक राजा का उल्लेख किया कि किस तरह से उसने अपने शिकार के शौक के लिए जंगल में बसे एक गांव को उजड़वा दिया था।

जैसा कि हमने आरंभ में उल्लेख किया है हमने धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक महत्व की जगह सेंवढ़ा से चलना शुरू किया और आगे हमारी यात्रा के क्रम में रतनगढ़ माता मंदिर सहित धार्मिक महत्व के कई स्थल आए, जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जाते हैं। रतनगढ़ और उसके आसपास के ग्रामीणों का मानना है कि रतनगढ़  माता के प्रभाव से उनमें आस्था रखने वाला या उनके दर्शन के लिए जाने वाले किसी शख्स के साथ उस इलाके में गलत नहीं हो सकता। इसे आप दूसरे तरीके से ऐसे समझें कि लोगों का यह मानना है कि असामाजिक तत्व भी भय या आस्थावश माता के दर्शन के लिए जाने वालों के साथ गलत नहीं करते। महुअर और सिंध के संगम पर साठेश्वर मंदिर स्थित है। यहां पार्वती भी मिलती है, जिसकी धारा पतली है। वहीं, उससे आगे सिंध के तट पर धूमेश्वर एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है, जहां के मुख्य पुजारी ने हमें नदियों के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व के बारे में बताया।

हमें सूंढ़ और सबौली के ग्रामीणों ने सिंध को लेकर कुछ धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में बताया। सूंढ़ के ग्रामीणों ने बताया कि इतनी तीव्र व विनाशकारी बाढ़ से सुरक्षा के लिए वे हनुमान भागवत कथा करेंगे, जिसका संकल्प उन्होंने बाढ़ के दौरान पानी कम होने की कामना के साथ लिया था। सबौली की ग्रामीण महिलाओं ने बताया कि वे सिंध में हर साल मकर संक्राति पर और प्रत्येक तीन साल पर दिवाली में एक बार मध्यरात्रि में वे पवित्र डुबकी लगाती हैं। इसके साथ वे चावल व गेहूं के आटे के बने हुए दीपक चढ़ाती हैं, जो मछलियों का भोजन बन जाती हैं। महिलाओं के बीच फल, बिंदी, चूड़ियाँ भी बांटने की परंपरा है। हमारी यात्रा के क्रम में कुछ लोगों ने सिंध का उल्लेख ‘गंगाजी’ के रूप में भी किया और इसे गंगा के समान धार्मिक महत्व देकर बात की।

पड़ाव, लोगों से मिलना और संवाद

दिन के अंत में और अंधेरा होने से पहले हम जहां पहुंचते वह हमारा विश्राम स्थल होता। हम लोगों को अपनी यात्रा का उद्देश्य बताते और उनसे रात के लिए आश्रय एवं भोजन मांगते थे। लगभग सभी गांवों के लोग हमारे बारे में जान कर हमसे प्यार व गर्मजोशी से पेश आते थे, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। इस दौरान चाय के दौर के बीच उनसे अनौपचारिक संवाद होता; जिसमें वे स्थानीय कहानियां, मान्यताएं, परंपरा और उन भौगोलिक स्थलों के बारे में हमें बताते। हम जिज्ञासा वश उनसे नदी, पानी, बाढ़, खेती, सिंचाई, संस्कृति, महिलाओं की शिक्षा, नौकरियों में गांव के प्रतिनिधित्व आदि से जुड़े से सवाल करते, जिसका वे जवाब देते। कई बातें खुद बताते। कई बार हमारे आने की सूचना पर गांव के अन्य बुजुर्ग, युवा भी हमसे मिलने पहुंच जाते। 

रात में जहां हम ठहरते थे, वहां भारत के गांवों की परंपरा के अनुसार राहुल को घर के बाहरी कमरे में ठहराया जाता था, जहां पुरुष सदस्य सोते हैं। वहीं, ऐशानी को महिलाओं के साथ घर के आतंरिक हिस्से में जगह दी जाती।

कुछ महिलाएं घूंघट में दिखतीं और हमारे (राहुल और ऐशानी के) सामने आने से बचती थीं। लेकिन, एक ही घर में हमारे रात्रि विश्राम की अलग जगहों ने घर की महिलाओं को ऐशानी के साथ संवाद का अनुकूल वातावरण उपलब्ध करवाया। हमारे काम व यात्रा के बारे में उन्हें सुनकर आश्चर्य हुआ। उनमें कुछ ने अपनी महिला अतिथि (ऐशानी) के लिए सुरक्षा व सहानुभूति वाले सुझावों के साथ चिंता व्यक्त की। पूर्व में ऐशानी ने पुरुषों से भी ऐसे सवाल व चिंताओं को सुना था, लेकिन कभी-कभी उन्हें उसमें सहानुभूति के बजाय सतर्कता और संदेह का स्वर महसूस हुआ।

बेटियों और बहुओं के साथ ऐशानी का संवाद अधिकतर शिक्षा और काम करने के अवसर को लेकर था, जिसकी संभावना गांव के भीतर कम थी। गांवों में हाईस्कूल व कॉलेज नहीं हैं, इस कारण छात्रों को दूरी तय करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में लड़कियों को नुकसान होता है, क्योंकि सामान्यतः उन्हें हाइस्कूल या कॉलेज के लिए उतनी दूरी तय करने या दूसरी जगहों पर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। ग्रामीणों ने इसकी वजह सुरक्षा की चिंता बतायी। ऐसे में अधिकतर लड़कियां आगे पढने और खुद अपनी आजीविका अर्जित करने का मौका गंवा देती हैं, जिसकी वे इच्छा रखती हैं। बातचीत में युवा महिलाओं ने आर्थिक रूप से स्वतंत्र व आत्मनिर्भर होने की इच्छा व्यक्त की। कुछ बातचीत में महिलाओं ने अपने आसपास के सामाजिक व पर्यावरणीय मुद्दों पर भी अपनी स्पष्ट व ठोस राय व्यक्त की।

ऐसा नहीं है कि जब अपने काम के लिए ऐशानी यात्रा करती हैं तो उनके मन में अपनी सुरक्षा को लेकर कोई सवाल नहीं होता है। पर,  निश्चिंतता व सुरक्षा सुनिश्चित करने का प्रयास करके वह इससे व्यक्तिगत स्तर पर निबटा लेती है। यह फील्ड वर्क का एक अतिरिक्त टास्क जैसा है। यात्रा के दौरान ऐशानी के लिए ऐसी कुछ चिंताएं उभरीं, लेकिन एक बड़ी मदद (दोनों के लिए) यह थी कि हमारी यात्रा की योजना लिंग संतुलित जोड़ी के रूप में तैयार की गयी थी। वह (ऐशानी) यहां उसका झिझक के साथ उल्लेख करती हैं, क्योंकि उन्हें अपने लिए उपलब्ध अवसरों व सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का भी अहसास है। उनकी चिंताओं और अवरोधों की तुलना उन महिलाओं-लड़कियों से नहीं की जा सकती है, जिनसे वे अपनी यात्रा के दौरान मिलीं, लेकिन ये चिताएँ फिर भी वाजिब हैं।

नरवर के पास स्थित सबौली गांव का भादौरिया परिवार

हमें सिंध यात्रा के क्रम में सिंध के बारे में, सिंध व उसकी सहायक नदियों के प्रवाह, आजीविका, जलवायु परिवर्तन, तंत्र व प्रणाली में कमियां-खामियां, भ्रष्टाचार को करीब से समझने का मौका मिला। हालांकि, अब भी हम उनके बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानते हैं। सिंध हमसे पुरातन है; वह बदली है, चीजों का अपनाया है, इसने हमारी समझ से परे जीवन व पारिस्थितिकी तंत्र को पोषित किया है। हम सिंध और उसके आसपास की और विस्तृत कहानियां साझा करने के लिए उत्सुक हैं, जो उसके साथ बिताए गए समय व दूरी के दायरे की हैं।


ऐशानी गोस्वामी और राहुल सिंह वेदितम इंडिया फाउंडेशन के सिंध नदी के लिए रिसर्च फेलो हैं, जिन्होंने सिंध नदी व उसके तटीय क्षेत्र की 12 दिनों तक  पदयात्रा की। उनकी यह यात्रा मूविंग अपस्ट्रीम फेलोशिप प्रोग्राम का हिस्सा है, जिसे आउट ऑफ इडन वॉक के सहयोग से हम आयोजित करते हैं। हमारे मूविंग अपस्ट्रीम प्रोजेक्ट के बारे में ज्यादा पढने-जानने के लिए यहां क्लिक करें।

आप ऐशानी से उनके इमेल aishaningoswami@gmail.com पर और राहुल से उनके इमेल rahuljournalist2020@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। अगर आप इस यात्रा से जुड़ी स्टोरियां/कहानियां लिखवाना चाहते हैं तो इसके लेखकों या फिर asid@veditum.org पर संपर्क करें।

इस आलेख को यह उल्लेख करते हुए पुनः प्रकाशित किया जा सकता है कि “यह मूल रूप से वेदितम पर प्रकाशित हुआ था” और उसमें इसका लिंक शामिल किया जाए। पुनर्प्रकाशन की स्थिति में कृपया asid@veditum.org पर एक सूचनात्मक मेल करें।

अगर आपको हमारा कार्य उद्देश्यपूर्ण व महत्व का लगता है तो आर्थिक सहयोग के माध्यम से हमारे प्रयासों का समर्थन करें। ऐसे सहयोग हमारे काम को संभव बनाते हैं। दान करने के लिए इस लिंक को क्लिक करें : www.veditum.org/donate

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